नई दिल्ली: मशहूर उर्दू साहित्यकार इस्मत चुगताई की मंगलवार (21 अगस्त) को 103वीं जयंती है. इस मौके पर गूगल ने उन्हें डूडल बनाकर याद किया. अपनी रचनाओं के माध्यम से पूरी जिंदगी महिलाओं की आवाज उठाने के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता है. इस्मत चुगताई का जन्म 21 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुआ था. अपने धारदार लेखन से उन्होंने लगभग 70 साल तक महिलाओं के मुद्दे और उनको सवालों को पुरूष प्रधान समाज के सामने मजबूती से पेश किया. उर्दू साहित्य जगत में स्त्री विमर्श के लिए उनका नाम आज भी प्रमुखता से लिया जाता है.
लेखनी को बनाया हथियार
अपनी रचनाओं में उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम तबके की महिलाओं की मनोदशा को उर्दू कहानियों और उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है. साल 1942 में प्रकाशित हुई उनकी कहानी ‘लिहाफ’ के लिए लाहौर हाईकोर्ट में उनपर मुकदमा चला. जो बाद में खारिज हो गया. इस्मत उर्दू साहित्य की सार्वधिक विवादास्पद और सर्वप्रमुख लेखिकाओं के रूप में पहचानी जाती हैं. उन्होंने अपनी रचनाओं में महिलाओं की आवाज और उनके सवालों को अपनी कलम के माध्यम से उठाया जिसमें वे सफल भी रहीं.
फिल्मों में किया अभिनय
इस्मत चुगताई ने कई फिल्मों की पटकथा लिखी और फिल्म जुगनू में अभिनय भी किया था. उनकी पहली फिल्म छेड़-छाड़ 1943 में आई थी. वे कुल 13 फिल्मों से जुड़ी रहीं. उनकी आखिरी फिल्म मील का पत्थर साबित हुई जिसका नाम था गर्म हवा (1973), इस फिल्म ने बहुत सफलता हासिल की जिसके चलते इसको कई पुरस्कार भी मिले थे.
इस्मत चुगताई ने महिलाओं पर होते अत्याचारों को देखा, समझा और फिर अपनी लेखनी के जरिए उसे पेश किया. उन्होंने 70 साल पहले पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों के मुद्दों को स्त्रियों के नजरिए से कहीं चुटीले और कहीं संजीदा ढंग से पेश किया. उनके अफसानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है. साहित्य तथा समाज में चल रहे स्त्री विमर्श को उन्होंने आज से 70 साल पहले ही प्रमुखता दी थी.
उर्दू साहित्य जगत चार आधार स्तंभ में से एक
उर्दू साहित्य जगत में चार आधार स्तंभ माने जाते हैं, जिनमें सआदत हसन मंटो, कृश्र चन्दर, राजेंद्र सिंह बेदी और इस्मत चुगताई शामिल हैं. उर्दू साहित्य जगत में इस्मत चुगताई को इस्मत आपा के नाम से जाना पुकारा जाता था. इस्मत का निधन 24 अक्टूबर 1991 को हुआ था. उन्होंने अपनी वसीयत के मुताबिक उनको मुंबई के चन्दनबाड़ी में उन्हें अग्नि को समर्पित किया गया था.